कु माऊँ नी भाषा मंे "सुन्दरकाण्ड" (Sunderkand)
कु माऊँ नी श्रीरामचरितमानस का पंचम सोपान "सुन्दरकाण्ड"
रचनाकार: मोहन चन्द्र जोशी
श्री गणेशाय नमः
जानकीबल्लभो विजयते
कु माऊँ नी श्रीरामचरितमानस
पँचुँ सोपान
सुन्दरकाण्ड
ष्लोक
शान्तं शाष्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यममनिषं वेदान्तवेद्यं विभुम्।
रामाख्यं जगदीष्वरं सुरगुरुं मायामनुश्यं हरि
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम्।।1।।
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्ति प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कु रु मानसं च।।2।।
Page: 1/26
श्री मोहन चन्द्र जोशी जी द्वारा रचित अन्य कु माऊँ नी रचनाएँ पढ़ें
Please visit Kumauni Culture Portal: www.kumauni.in
उनुँ कंै मारी वैहैं लड़णँ लागा। मानो भिणनीं उँ द्वि गजराजा।।
मुट्ठि मारि बोट मंे ल्है ग्याया। जिती नि जाना प्रभंजन जाया।।
दोहा-
ब्रह्मास्त्र वील साधि है कपि मन करनि विचार।
अगर नैं ब्रह्मास्त्र मानँू महिमा मिटलि अपार।।19।।
वीलै ब्रह्मास्त्र ल् कपि कंै मार। छु टँण बखत हँछ सेना संहार।।
वीलै देख कपि मूर्ति हैगो। बादि नागपाश में ल्हिनैगो।।
जैक नाम जपि सुणो भवानी। भव बंधन काटनीं नर ज्ञानी।।
वीक दू त के बादण म् आल। प्रभु कार्य लिजी कपि लै बंधाँछ।।
बानर बादि सुनि निसिचर दौडि़। तमाश द्यखणहुँ सभा सब आैं छि।।
दसमुख सभा देखि कपि जाई। कइ नि जानि कु छ अति प्रभुताई।।
हाथ जोडि़ दिक्पाल विनीता। भौं ताकनीं सबै भयभीता।।
देखि प्रताप नंै कपि मन शका। जसि स्यापथुपुड़ गरुड़ अशंका।।
दोहा-
कपि कैं देखि दशानन हँसछ कै बेर दुर्वाद।
च्यलैकि मरणैकि फाम करि उपज हिया विवाद।।20।।
कँ छ लंके श तु को छै बानरा। कै का बल परि य बँण उजाडा।।
के त्वील कानल् सुण नंै मिकंै । देखणी अति आशंका सठ तुकंै ।।
मार निशाचर के अपराध। बता सठ तुकंै न प्राणकि बाधा।।
सुण रावण उँ ब्रह्माण्ड निकाया। पै जनर बल रचंैछा माया।।
जनार बल ब्रह्मा हरि ईसा। पालनि सृजनिं हरनिं दससीसा।।
जनार बल रव्वर धरि सहसानन। ब्रह्माण्ड समेत सब पर्वत डान।।
धरनीं विविध देह सुरत्राता। तुम जस सेठों कंै सीख दाता।।
शिव धनुष कठिन जैल मंजा। वीक समेत नृप दल मद गंजा।।
खरदू षण त्रिसरा औ बाली। मारा सब अतुलित बलशाली।।
दोहा-
जनर बल लवलेश लै जीता चराचर सारि।
वीक दू त मि जैक करी हरि ल्याछै प्रिय नारि।।21।।
जाँणनूँ मि तुमरी प्रभुताई। उ सहसबाहु हंै हँछि लड़ाई।।
लड़ै बालिहंै करी यश पाँछ। सुणि कपि वचन हँसीबे टालँछ।।
खाइनाँ फल लागि प्रभु भूखा। कपि स्वभावल् टोडि़ना रूखा।।
Page: 10/26
श्री मोहन चन्द्र जोशी जी द्वारा रचित अन्य कु माऊँ नी रचनाएँ पढ़ें
Please visit Kumauni Culture Portal: www.kumauni.in
यस कै हिटनीं विभीषण जब। आयु विहीन भया सबै तबै।।
साधु अपमान तुरन्त भवानी। सब कल्याण की करि द्यौं हानी।।
रावण जबबै विभीषण त्यागा। भय वैभव बिन तबै अभागा।।
गो हरशि उ रघुनायक पासा। करिं मनोरथ भौत मन मेंजा।।
देखुल् जैबे कमल जलजाता। कँ उँ ललंैन सेवक सुखदाता।।
जो पद पलासि तरि ऋषिनारी। दंडक वन हंै उ पावनकारी।।
जो पद जनकसुता हिया धरी। जो कपट मृग का दगडि़ दौड़ीं ।
हर उर तालकमल पद जो छैं । अहोभाग्य मि देखँूल उनुँकंै ।।
दोहा-
जो चरण पादुका भरत रौनिं मन लगैबेर।
वी चरण आज द्यखुँल मिं य आँखों ल् जैबेर।।42।।
य विधी करने सप्रेम विचारा। आया झिट में सिंधु का वारा।।
बानरोलं ् विभीषण औणं देख। जाँण क्ेव छु शत्रु क् दू त विशेष।।
उकैं धरि कपीस पास आया। समाचार सब उकैं सुणाया।।
फिर कँ सुग्रीव सुणो रघुराई। आय मिलण दशानन क् भाई।।
कौनं ीं प्रभु सखा समझिबेर कया। कांनिं सुग्रीव सुणों नरनाहा।।
जाँणि नि जानिं निशाचर माया। कामरूप के कारण आया।।
हमरै भेद ल्हीहं ौं सठ आय। बादि धरँ ण म्यारा यास भाव।।
सखा नीति तुम भली विचारी। म्यर प्रण शरणागत भयहारी।।
सुणि प्रभु वचन हरष हनुमाना। शरणागत वत्सल उँ भगवाना।।
दोहा-
शरणागत जो त्यागनिं आपु अनहित अनुमानि।
उ नर पामर पापमय उनँु देखणैं में हानि।।43।।
कोटि विप्र बध लागि हो जैकंै । आओ शरण उ तजो नैं उकैं ।।
सनमुखै हँछ जीव म्यार जबै। कोटि जन्म पाप नसि जाँनि तबै।।
पापवंत क हौछं सहज स्वभाव। म्यरा भजन एकै कभैं नि छाज।।
जो यदि दुष्ट हृदयकै उँ हौछं ी।ं तो उ के म्यार सन्मुख याँ औछं ि।।
निर्मल मनक् जन वी मिकैं पाँछ। म्यकै कपट छल छिद्र नंै भाँछ।।
भेद ल्हिहौं भेजि य दशशीसा। तब लै के भइ हानि कपीशा।।
जग में छन सखा निशाचर जतु। लक्ष्मणंै मारि द्यल लड़ैं में कदु।।
जो भयभीत आय शरणाई। धरनँु उकंै प्राणों की वाई।।
Page: 19/26
श्री मोहन चन्द्र जोशी जी द्वारा रचित अन्य कु माऊँ नी रचनाएँ पढ़ंे
Please visit Kumauni Culture Portal: www.kumauni.in
दोहा-
द्वियै भाँति उकै ल्हि आओ हँसि क कृ पानिके त।
जै कृ पाल कै कपि हिटा अंगद हनू क् समेत।।44।।
सादर उकंै अघिल करि बानर। ल्हैगिं जो रघुपति करुणाकर।।
टाड़ देखि वील द्वियै भ्राता। नयनानन्द दान का दाता।।
फिर राम छविधाम कंै देखी।ं रया ठिठकि एकटक पल रोकी।।
विशाल भुज कं जारूण लोचन। शाँवल आँङ प्रणत भय मोचन।
शेर जास् कान आयतछाति। मुख असंख्य मदनों मन मोहणी।ं ।
पुलकि शरीर आँखों मंे पाणिं। मन धरि धीर कै कमठ वाणी।ं ।
नाथा दशानन क् मि भ्राता। राक्षस कु ल जन्म म्यर सुरत्राता।।
सहज पाप प्रिय तामसी देह। जसि उल्लू कैं अन्यार परि स्नेह।।
दोहा-
कानों लै सुयश सुणि बे आयँु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरत हरण शरण सुखद रघुवीर।।45।।
यस कै दंडवत करण उनँु देखा। तुरत उठा प्रभु हर्ष विशेषा।।
दीन वचन सुणि प्रभु मन भाया। भुज विशाल पकडि़ हि लगाया।।
नान् भै दगै भैट ढीक भैटाईं। बुलाईं वचन भगत भय हारी।।
कओ लंके श सहित परिवारा। कु षल कु ठौर वास तुमारा।।
खल मंडली बसंै दिन राती। सखा धर्म निभौछं ा के भाँति।।
मि जाँणनूँ तुमरि सब रीति। अतिनीति निपुण न भाँछ अनीती।।
बड़ भल वास नरक उ ताता। दुष्ट संग झन दियो विधाता।।
आब् पद देखि कु शल रघुराया। जो तुम करी भक्त जाँणि दाया।।
दोहा-
तब तक कु शल न्हैं जीवों की स्वैणाँ मन विश्राम।
जब तक भजन नैं राम का शोकधाम तजि काम।।46।।
तब तक हि मंे राय दुष्ट नाना। लोभ मोह डाहा मद माना।।
जब तक हिय नि बसन रघुनाथा। धनुष बाँण धर तरकस बाँधा।।
काइपट्ट रात माइ अन्यारी। राग द्वेष उल्लुहूँ सुखकारी।।
तब तक बसंै जीव मनैं मजी। जब तक प्रभु प्रताप रवि न्हंैती।ं ।
अब मीं कु शल मिट भय भारा। देखि राम पद कमल तुमारा।।
तु कृ पालु जै पैर अनुकू ला। उकै नि ब्यापँ भव त्रिविध सूला।।
Page: 20/26
श्री मोहन चन्द्र जोशी जी द्वारा रचित अन्य कु माऊँ नी रचनाएँ पढ़ें
Please visit Kumauni Culture Portal: www.kumauni.in
मि निशिचर स्वभावक अति अधमा। शुभाचरण करि के लै निछना।।
जनर रूप मुनि ध्यान नि आया। वी प्रभु हरषि हि मिकैं लगाया।।
दोहा-
अहोभाग्य म्यर असीम अति राम कृ पा सुख पंुज।
देख आँखाँल विरं चि शिव सेवन युगल पद कं ज।।47।।
सुण सखा आपु कौनं ंै स्वभाव। जाँणनीं भुसंुडि शंभु गिरिराऊ।।
जो नर हौछं चराचर द्रोही। आओ सभय शरण तक मेरी।।
त्यागूॅं मोह मद कपट छलणां। झट करि दिनँू उ साधु समाना।।
मै बाब भै च्यल और दारा। तन धन घर मित्र औ परिवारा।।
सबुकंै ममता धाग बटोई। म्यर पद मनबै वादि भलि डोरि।।
समदर्शी इच्छा जै कैं न्हंैती। हर्ष शोक भय न्हैंती मन मेजँ ी।।
यस सज्जनम्यर हिय भैटूँ कसिक।लोभीक् हृदय धन बसों जसिक।।
सदा तुमँु जस्सै उ संत प्रिय मिकैं । और निहर धरनँू नैं देह कैं ।।
दोहा-
सगुण उपासक परोपकारि रत निति दृढ़ नेम।
उ नर प्राण समान मिहणैं िं जनर द्विज पद प्रेम।।48।।
सुणों लंके श सबै गुण तुमुमैं। तात तुम भौतै प्रिय छा मिकंै ।।
राम वचन सुणि बानर यूथा। सबै कौनं िं जय कृ पाबरूथा।।
सुणनंै विभीषण प्रभु की वाणिं। नि अघान श्रवणामृत जाँणी।।
चरण कमल पकड़ा कदु बारा। हिय अटाँनै न प्रेम अपारा।।
सुणो देव सचराचर स्वामी। प्रणतपाल हिया क् अंतर्यामी।।
हिय कु छ पैली वासना रई। प्रभु पद प्रीतीकि गाड़ उ बगी।।
अब कृ पालु आपु भक्ति पावनी । दिया सदा शिवक् मन भावनी।।
एवमस्तु कौनं ीं प्रभुरणधीरा। माँगछ तुरन्त सागर क् नीरा।।
यद्यपि सखा तेरी इच्छा न्हंैती। पर म्यर दर्शन अमोघ जग मंेजी।।
यस कै राम तिलक उकैं णिं करा। फू लां बरख अगास अपारा।।
दोहा-
रावण कि रीस अग्नि बै आपँु स्वाँसकि हाव प्रचण्ड।
जगन विभीषण कैं बचैबेर दिदेछ राज अखण्ड।।49 क।।
जो सम्पति शिवल् रावण कंै दि दिण पर दसमाथ।
वी संपदा विभीषण कैं संकोचि दिणीं रघुनाथ।।49 ख।।
Page: 21/26
श्री मोहन चन्द्र जोशी जी द्वारा रचित अन्य कु माऊँ नी रचनाएँ पढ़ंे
Please visit Kumauni Culture Portal: www.kumauni.in