चक्रव्यूह
मैं काल भी, मैं ही कुंभ हँू,
मैं शभं ु भी, मैं ही शभंु हँू।
मंै प्रेम हूँ, मंै ही रुद्र भी,
कभी कलु ीन मैं तो कभी शदू ्र ह।ूँ
कभी सभ्य मैं तो कभी हीन हूँ,
कभी भव्य मंै तो कभी दीन ह।ूँ
कभी रात की मंै कालिमा,
तो कभी सूर्य की मैं लालिमा।
कभी दवे ों की मैं छाया हूँ,
तो कभी दानवों की मैं माया हू।ँ
कभी रूप धरा मनैं े धर्म का,
तो कभी पाप निहित दुष्कर्म हँू।
परिस्थितियों के समर में,
मैं सत्य तो कभी मिथ्य हूँ।
मैं ही पुण्य और पुनीत हँू,
मैं घणृ ित भी और भतृ ्य हँू।
क्या रूप धरूँ, किससे व्यथा कह,ँू
मंै सशं य हँू, संभ्रांत हू।ँ
सदृश्य हंै सब कर्म मात्र क,े
कभी धर्म हूँ तो कभी अधर्म ह।ँू
जीवन के इस करु ुक्षेत्र में,
निर्णय की असमजं सता ह।ै
वीर कतृ ्यों की विस्मयता में,
मैं चक्रव्यूह के द्वार खड़ा हँ।ू
पात्र पड़े हैं कई शरू ों क,े
सिगं ापरु नवरस / 106
विकल्प रूपी बाहँ ें फलै ाए।
कर्ण, अर्जुन जैसे मतृ ्युंजयों मंे,
आलिंगन कर मैं ‘अभिमन्यु’ हँू।
सिगं ापुर नवरस / 107
श्रद्धा जनै
आठ नवंबर को विदिशा (मध्य प्रदशे ) में जन्मी श्रद्धा जैन (शिल्पा
जनै ) ने एमएससी (केमिस्ट्री), एमए (हिंदी) और बीएड विदिशा में पूरी
की। बचपन से ही साहित्य मंे रुचि होने के कारण अध्ययन के साथ कविता,
दोहे, गीत, लखे आदि लिखना शुरू कर दिया था। विवाह के बाद पति के
प्रोत्साहन पर 2003 मंे ‘भीगी ग़ज़ल’ नामक ब्लॉग शुरू किया। बाद मंे प्राण
शर्मा जी से ग़ज़ल के नियम की ऑनलाइन क्लास लके र ग़ज़ल कहना शरु ू
किया। श्रद्धा ने 2005 मंे शायर ‘फ़ैमिली नामक’ एक वेबसाइट शुरू की
जो बहुत प्रसिद्ध हुई, परंतु बाद में पारिवारिक व्यस्तता के कारण उसे बंद
करना पड़ा। साल 2007 मंे श्रद्धा ‘कविताकोश’ से जुड़ गईं और वर्तमान
मंे ‘कविताकोश’ के सचिव पद पर कार्यरत है।ं साल 2018 मंे फ़ेसबुक पर
ग्लोबल हिदं ी फ़ाउंडशे न की संस्थापक ममता जी से परिचय होने का सखु द
संयोग हुआ। जब चार साल मलेशिया प्रवास के बाद 2019 में सिंगापुर
वापिस आईं तो ग्लोबल हिंदी फ़ाउडं ेशन के माध्यम से विदेश मंे साहित्यिक
गतिविधियों का सिलसिला चल निकला।
प्रकाशित कतृ िया-ँ यकू े मंे प्रकाशित ‘समुद्र पार हिदं ी ग़ज़ल’,
‘परवाज़-ए-ग़ज़ल’, ‘ग़ज़ल के फ़लक़ पर’। सरस्वती मासिक पत्रिका
में दोहा संकलन। ग़ज़ल और स्त्री साहित्य का सौंदर्यशास्त्र आदि साझा
संकलनों मंे रचनाएँ प्रकाशित। नवभारत टाइम्स एवं सिगं ापुर और भारत से
निकलने वाली विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।
सपं ादित कतृ ियाँ- कविताकोश : एक नया आयाम (ललित कुमार),
ग़ज़ल दरीचा (डॉक्टर मुज़फ़्फ़र हनफ़ी), कभी यूँ भी हो कोई वाक़िया
(सुदेश कुमार महे र), अनाम (सर्वेश त्रिपाठी), लकीरें (डॉक्टर मिदहत-
उल अख़्तर)
सम्मान/परु स्कार-
• नवोदित कलाकार सम्मान 2005
• कविताकोश सम्मान 2011
सिंगापरु नवरस / 115
सिगं ापरु नवरस / 116
एक लड़की पागल दीवानी
एक लड़की पागल दीवानी, गुमसुम चपु -चपु सी रहती थी
बारिश-सा शोर न था उसम,ंे सागर की तरह वो बहती थी
शख़्स जो अक़्सर दिखता था, उस दिल के झरोखे में
दर्द कई वो दते ा था, रखता था उसको धोखे में
उसकी ठोकर खा के भी, वो उस मंे सिमटी रहती थी
था प्यार बला का उससे ही, वो जिसके ताने सहती थी
छोटी उदास आखँ ें उसकी, न जाने क्या-क्या कहती थी
कोई शिकायत न की उसने, न ही किसी से पीड़ा बाँटी
प्रेम दीवानी मीरा जसै े वह उसके रगं मंे रगं जाती
वो हँसता था जब-जब उसपे वो भी हँसती रहती थी
उसकी बातों को सच कहती, वो ख़ुद को पागल कहती थी
छोटी उदास आँखें उस की, न जाने क्या-क्या कहती थी
इक दिन ऐसा भी आया, वो हँसता चहे रा रूठ गया
प्रेम, समर्पण की मिसाल था, वो बतु आख़िर टटू गया
बाद में उसक,े कई ख़त मिले, जिनमंे कई प्यार की बातें थी
सौगातंे थी पाक दुआ की, भेजी चाँदनी रातंे थी
लिखा था उसने, सभँ ल के रहना, इतना भी मत ग़ुस्सा करना
अब और कोई न सीखेगा, तमु से जीना, तुम पर मरना
समझा वो भी अब जाकर, क्या उसकी आखँ ें कहती थीं
इक लड़की पागल दीवानी, क्यों गमु समु चुप-सी रहती थी
सिंगापुर नवरस / 117
मूक संवाद
मेरी आँखों से तरे ी आँखों तक
प्यार की जब हो गपु चपु बात
होंठ सिले हों, आँखें नम हो
मौसम बजा रहा हो साज़
दूर कहीं शहनाई बजे और
बाग़ों में खिल उठे गलु ाब
स्पर्श तमु ्हारा बजे तरगं बन
दूर कहीं जलती हो आग,
एक दूजे को जाने हम जब
मूक हमारे हो संवाद
सिगं ापरु नवरस / 118
गौरव उपाध्याय
गौरव उपाध्याय पिछले 5 सालों से सिंगापरु में रह रहे ह।ैं सीनियर
टेक्नोलॉजी प्रोफे़शनल के रूप में गौरव एक बहुराष्ट्रीय कंपनी मंे कार्यरत ह।ैं
इन्होंने Mudra।nstitute of Communications, Ahmedabad
से मनंै जे मंटे में उच्च शिक्षा प्राप्त की ह।ै पिछले 12 सालों से सक्रिय रूप से
हिंदी साहित्य में योगदान दते े आ रहे ह।ैं ग्लोबल हिदं ी फ़ाउडं शे न से इनका
जडु ़ाव है और सिंगापरु के विभिन्न कार्यक्रमों में हिस्सा लते े रहते हंै। हाल
में ही गौरव जी का काव्य-संकलन ‘1/2 Filter कॉफ़ी’ प्रकाशित हुआ
है और यवु ा हिंदी पाठकों के बीच लोकप्रिय हो रहा है। सोशल मीडिया
प्लेटफ़ॉर्म पर सक्रिय रहकर इन्होंने हिदं ी के प्रचार प्रसार मंे सक्रियता दिखाई
है। हिदं ी कविता पाठन मंे विशेष रुचि रखते हुए गौरव जी की कविताएँ
डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर काफ़ी लोकप्रिय हो रही ह।ैं आधुनिक हिंदी के प्रचार
मंे सेवारत गौरव उपाध्याय सरल और आसानी से पाठकों तक पहुचँ ने वाली
कविता लिखते ह।ैं सामाजिक मुद्,ेद दार्शनिक विचार, जीवन शलै ी और
प्रेम के विषयों पर लिखने मंे ज़्यादा रुचि रखते हैं। हिंदी कविता को गौरव
एक महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप मंे दखे ते हैं, जो नयी पीढ़ी को सामयिक रहने
के साथ सांस्तकृ िक धरोहरों को भी आगे लेकर बढ़ने का काम करती ह।ै
सिंगापरु नवरस / 124
सिगं ापरु नवरस / 125
माँ-पहला प्रेम
मंै आज खुलकर इज़हार करना चाहता हँू
माँ, मंै तमु ्हें हद से ज़्यादा प्यार करना चाहता हूँ
मा,ँ तमु ्हारी बड़ी-बड़ी आखँ ,ें नम तो नहीं हं?ै
मरे े, बड़े होने जाने का कहीं तुम्हंे ग़म तो नहीं ह?ै
लौट जाना चाहता ह,ँू दौड़कर बचपन में मंै
छपु कर आँचल में तुम्हार,े दलु ार करना चाहता हँू
मंै आज खलु कर इज़हार करना चाहता हँू
माँ, मंै तुम्हें हद से ज़्यादा प्यार करना चाहता हूँ
इन चादँ ी जैसे बालों का, उम्र से गिला मत करना
माँ, लोग नज़र लगाते हैं, सबसे मिला मत करना
तुम सादगी से जी गई हो किस तरह लबं ा यह जीवन
बठै कर संग तुम्हारे, तुम्हारा शंगृ ार करना चाहता हँू
मंै आज खलु कर इज़हार करना चाहता हँू
मा,ँ मैं तुम्हें हद से ज़्यादा प्यार करना चाहता हूँ
याद है मुझको तमु ्हारी, तवे की पिछली वो रोटी
वो बड़ी-सी माथे पर बिदं ी, और वो लंबी-सी चोटी
त्याग और बलिदान, क्यों चुपचाप करती रही
मैं तमु ्हारे बलिदानों का, इश्तेहार करना चाहता हँू
मैं आज खलु कर इज़हार करना चाहता हँू
माँ, मैं तमु ्हंे हद से ज़्यादा प्यार करना चाहता हँू
माँ सनु ो, वो परियों की कहानी, सच्ची थी ना?
वह छोटी-सी दुनिया हमारी, कितनी अच्छी थी ना?
सिगं ापरु नवरस / 126
हाथ थामे मैं तमु ्हारा, घर वाली फलु वारी में
सबु ह वाली सैर फिर से एक बार करना चाहता हूँ
मंै आज खुलकर इज़हार करना चाहता हँू
मा,ँ मंै तमु ्हंे हद से ज़्यादा प्यार करना चाहता हूँ
मा,ँ कठिन हंै रास्ते बहुत, इस जीवन के सफ़र में
बस, लौट आऊँगा, ज़रा रुको, वापस मैं घर मंे
वक़्त बीता जा रहा ह,ै बातें बहुत करनी हैं तमु से
तमु ्हारे लिए, सारे प्रलोभन, इनकार करना चाहता हूँ
मैं आज खुलकर इज़हार करना चाहता हूँ
माँ, मैं तुम्हें हद से ज़्यादा प्यार करना चाहता हँू
माँ चालीस का होने वाला हू,ँ अब चलते-चलते थकता हूँ
मोटी ऐनक़ और सफ़दे बाल, कुछ तरे े जैसा दिखता हूँ
मा,ँ क्या दोनों बढ़ू े हो जाएँग,े एक दिन ऐसा भी आएगा
जनम-जरा के सारे सच मं,ै अब स्वीकार करना चाहता हँू
मैं आज खुलकर इज़हार करना चाहता हूँ
मा,ँ मंै तमु ्हंे हद से ज़्यादा प्यार करना चाहता हँू
सिगं ापुर नवरस / 127
वंदना सिहं
वदं ना सिंह मूलतः लखनऊ (उत्तर प्रदेश) से ह।ंै भारत सरकार के
प्रतिष्ठान मंे राजभाषा अधिकारी के रूप मंे हिदं ी भाषा का प्रशिक्षण, संपादन
और अनवु ाद तथा साहित्यिक लेखन आदि कार्यों का लबं े समय तक
निर्वहन करने का सअु वसर मिला। वर्तमान मंे वदं ना सिंगापरु मंे रहती ह।ैं
वंदना जी के लिए कविता मन के सूक्ष्म अनकहे भावों की वह अभिव्यक्ति
है जिसे हाथ बढ़ाकर छआु तो नहीं जा सकता किंतु उसकी नि:शब्द पदचाप
धीरे से काग़ज़ों पर अपनी छाप छोड़ती जाती ह।ै कविता उनके लिए जीवन
के विविध पहलुओं के इंद्रधनषु ी रंगों का आयाम है।
सिगं ापरु नवरस / 140
कामकाजी महिला
कामकाजी महिलाएँ
बसों म,ें टेम्पो में
भागती हुई
घड़ी की दो सुइयों से
होड़ करती हुई
रोज़ हार जाती हंै
दरे ी का कारण
नहीं समझा पाती हं।ै
होती है पीर तब
चुभता है तीर जब
अपने ही कहते हंै
आपके मज़े हं ै
दोनों कमाते हैं
बंैक बैलसें बढ़ाते हंै
उन्हंे क्या बताएँ
कि ज़िंदगी के बंैक में
समय का खाता है
जहाँ जमा कछु भी नहीं
केवल ख़र्च हो रहे पलों का
हिसाब रखा जाता है
काम करत-े करते
अचानक हाथ रुक-सा गया है
काग़ज़ों पर बार-बार
एक नन्हा चेहरा उभर आया है
भरी दोपहरी थके पावँ
सिंगापुर नवरस / 141
स्कूल से घर आया है ममता की छाँव बिन
बियाबान-सा घर पाया है
ठंडा भात, बेस्वाद दाल
कुछ खाकर कछु फकंे आया ह।ै
दरवाज़े पर टकटकी-सी लगी है
बताने को उमड़ रही हंै
कितनी ही बातें
बिना क़ुसूर ही
टीचर से आज फिर
डाँट पड़ी है
पर अभी तो माँ के
आने में दरे बड़ी है
कितनी ही शिकायतंे
कितने मनुहार
अनकहे ही रह गए हंै
उसकी वह तोतली बातंे
उसका पहला क़दम चलना
कितने ही पल उसे
छुए बिन ही गजु ़र गए हंै
पर समय कब किसी
की प्रतीक्षा में रुका है
माँ की आँखों का सूनापन पढ़
बचपन अचानक
बड़ा हो चकु ा है, पर
कामकाजी महिला की
इस मनोव्यवस्था को
कौन समझ सका ह?ै
सिगं ापरु नवरस / 142