The words you are searching are inside this book. To get more targeted content, please make full-text search by clicking here.
Discover the best professional documents and content resources in AnyFlip Document Base.
Search
Published by Himanshu Shekhar Hindi Poet, 2021-01-01 02:42:07

01.01.2021 गाँव

01.01.2021 गाँव

शब्द सत्ता शशल्पी संवाद
भाग 18: गावं

दोस्तों!

“शब्द सत्ता के शशल्पी” नामक व्हाटसएप
समहू में होने वाली दैननक कववता ववननमय
वववरण आपके सामने प्रस्तुत है| आज 19
ददसम्बर 2020 को “गाांव” शीर्कष पर साझा
की गई कववताओां की एक झलक देखिए|

डॉ दहमाशां ु शेिर

एक ददन एक ववर्य: गांवा

ददनााकं : 19.12.2020

इस अांक के शब्द शशल्पी गण

मीनू वमाष
प्रेरणा पाररश
पूनम शसन्हा श्रेयसी
सुरेश वमाष
डॉ पुष्पा जमुआर
स्स्मता कु मार
ववनीता शमाष
प्राणेन्र नाथ शमश्र

सांघर्ष

"ऐसे हंै .....
ग्रामीण हमारे,
स्जनके अनोिे

टू टे झोपडे
फु स के उनके
छोटे झोंपड।े
िाट पर पडे
सडे वो चिथडे
गाय-भसंै ों के

टू टे टोकडे,
ना कोई नतजोरी

ना ही बडे बक्से
ऐसे हंै..........
ग्रामीण हमारे।

ददन भर मेहनत
करते, वे सारे
रात बबताते,

रूिी -सूिी खाके ,
छोटे बच्िे

िेतो में िेले
िाली बदन
हर कष्ट को झले ें।

हर घर में
सात -आठ बच्िे,

भूिे पेट
बबलिते बच्िे
अनपढ़ और
लािार वे बच्िे,
बेबस और ननरीह

वे बच्िे।
ऐसे हंै.....
ग्रामीण बेिारे।

अज्ञानता का ,

अाधं कार है फै ला,
सबका रहता,
वस्र भी मलै ा,
स्स्रयाां सर पर
बोक्ष है ढोतो़ ी
रात में गहरी
नींाद वो सोती,
परु ुर्ों का यहाां
क्या कहना!
शमट्टी ही बस,
उनका गहना।
हल को शलए

शाम तक भागंे
भिू े पेट...

आकाश ननहारे,
ऐसे हैं ग्रामीण हमारे।"

मीनू वमाष

हमारा गांाव

शहर की जगमग से दरू ,
अभाव है जहांा भरपरू ,
ऐसा है हमारा गांवा ,

जहांा है हर कोई मजबूर।
सुि -सवु वधा से कोसों दरू

ननधनष ता है जहाां भरपरू ,
ऐसा है हमारा गावंा ,

गरीबी से जहाां सब मजबूर।
छल- कपट से परे जहा सब
एक -दसू रे से जडु े जहाां सब
शांानत,सच्िाई जहांा है बसती
झूठों की जहा,ां न कोई हस्ती
प्यार ददलों मंे बसा,जहा रहता

ऐसा है हमारा गांवा ।
जहांा है अच्छाई भरपरू ।

मीनू वमाष

छोडा हुआ घर

छोडा हुआ वही घर है ये,
प्यारा कभी जो कहलाता था,
गुम है आज िुशशयाां इसकी,
िडा कभी जो मुस्कु राता था।
ना तो िहल-पहल है इसमंे,
ना ही कोई रौनक है कहींा,

बीते मधरु यादों को शलए,
बेबस, बेजान पडा है अभी,
छोडा हुआ वही घर है ये,
ददों को अपने छु पाए हुए,
अपनों से शमलने की आस मंे,

रास्तों पर नजरंे दटकाए हुए।
बीते ददनों की याद को शलए,
कु छ िोदटल और घायल है ये,
धूलों और जालों से शलपट कर,

तडप रहा है रो-रो कर ये,
बुला रहा है जाने कब से,
अपनो को करुणा भरे स्वर से।
दरवाजे, खिडकी, मेज, कु शसयष ांा
बेजान परे हैं झूले कब से।
देि रहा जो राह अपनो की,
धंधुा ली, मधुर यादों को साजं ोकर।
छोडा हुआ वही घर है ये,

प्यारा कभी जो कहलाता था।

मीनू वमाष

हमारा गाावं

शहर की जगमग से दरू ,
अभाव है जहांा भरपरू ,
ऐसा है हमारा गावंा ,

जहाां है हर कोई मजबूर।
सिु -सवु वधा से कोसों दरू
ननधनष ता है जहाां भरपरू ,

ऐसा है हमारा गांाव,
गरीबी से जहांा सब मजबरू ।

छल- कपट से परे जहा सब
एक -दसू रे से जुडे जहांा सब
शाांनत,सच्िाई जहांा है बसती
झठू ों की जहांा, न कोई हस्ती
प्यार ददलों मंे बसा,जहा रहता

ऐसा है हमारा गावंा ।
जहांा है अच्छाई भरपूर।

मीनू वमाष

मेरा गावंा मेरा देस

(१)
बरसों पहले गाावँ छू टा

रोटी के शलए घर बार छू टा,
छू टी वो बागों की अशमया
छू टी अपनी सी वो गशलयााँ,

अपना घर दालान छू टा
सुकू न भरा मकान छू टा,
सगंा ी साथी सगां बबताए
िुशशयों भरे सब पल भी छू टे,
हररयाले वो िेत भी छू टे
बागों के झलू े भी छू टे,
आ बसे जो हम परदेस
अपने देस की खुशबू छू टी,
गुडडया का वो घर भी छू टा

नीला वो अंबा र भी छू टा,
पेडों की ठां डी छावाँ छू टी
बेफ़िक्री भरी वो सााँस भी छू टी,
आन बसे हम बडे शहर मंे
िमिमाते से नगर मंे,
स्जसमंे हर आराम भरा है
िौडा िौडा हर रस्ता है,
पडोस से भी अनजान हंै रहते
ऊाँ िे ऊँा िे मकान मंे रहते,
सुि सवु वधाओां से पररपूणष
सभंा ्ातंा और सरु ूचिपणू ,ष
ऐसे बांगलों के कान नहींा हैं

लोग तो हंै, इंासान नहीां है
हवा तो है पर ज़हर भरी है
अाबं र भी है पर नीला नहीां है,
ठां डे कमरों मंे भी गरमी है
पेडों की वो छााँव जो नहीां है,

सब अपने में रमे हुए हैं
सुि की तलाश मंे लगे हुए हंै,
हर रोज़ का एक रुटीन बन गया
मानव जसै े मशीन बन गया,

जीवन मंे शानंा त की कमी है
सातं ोर् का िज़ाना जो नहीां है,
मज़बरू ी है रहने की यहाँा पर

अपने गाावँ जो रोज़ी नहीां है,
शायद कभी ऐसा ददन आए
जब हो हम जसै ों के साथ भी न्याय,
अपनी शमट्टी से कटंे कभी ना
रोटी को हों बेघर कभी ना।

(२)
देिो ये गम का गावँा है
यहांा न सुि की छााँव है,

जहाँा जहााँ कदम पडे
काटां े ही लगते पाँवा हंै,
यहाँा भला फफर क्यूां रहंे

ये अत्यािार क्यांू सहें,
क्यूां न अब ये गाँवा छोड दें

रस्मो ररवाज़ तोड दंे,
भेदभाव नतरस्कार भरा
ज़ाशलम समाज छोड दंे,
बसाऐंा नया जहान अब
ढूंाढंे नया मकान अब,
जहााँ रोशन हों ख्वाब सब
गमों की शाम न हो जहाँा,

इांतकाम न हो जहाँा
ऐसे नए से गावाँ मंे
तारों की ठंा डी छााँव मंे,

शमलके जो हमसब गायगंे े
शमल के िुशशयााँ मनाएंागे,

बबिरंेगे फू ल हर कदम
कांाटे ना फफर सताएंागे।

प्रेरणा पाररश

गीत

बरगद की छाँाव तले,
मन मंे अरमान पले।
कल-कल कहती नददयाँा,
सपनों के *गाावँ * िले।
छोटी सी कु दटया में,िुशशयााँ ही िशु शयााँ हो।

अपना फकरदार ननभा,सुकू न का जररया हो।

िेहरों पर सबकी,फू ल सी मसु ्कान खिले ।
छोटा या बडा कोई,सभी को मान शमले।

आशा की ज्योनत जले।
मासं ्जल की ओर िले।
उमगंा ों से भरी -भरी, सबकी डगररया हो ।
अपना फकरदार ननभा,सकु ू न का जररया हो।

धानी िुनरी ओढे धरा इतराती रहे ।
फू लों की िुश्बू,ददशाएां महकाती रहे ।
भौंरों का गंुजा न हो । नततली का नत्तनष हो।

फू ल हम इक डाल के , यही अब नजररया
हो ।

अपना फकरदार ननभा,सुकू न का जररया हो।

सत्य पथ पर हमको सदा िलने रहना है।
अपने अवगुणों का त्याग करते रहना है।

शमलजलु कर साथ रहे।
अब न भेदभाव रहे।

नफरत की आग न जले ,प्रेम का दररया
हो।

अपना फकरदार ननभा,सकु ू न का जररया हो।

पूनम शसन्हा श्रेयसी

मााँ की हथेशलयों की िशु बू

इधर कु छ ददनों से ,
अममू न हर रात

मेरे सपनों मंे शससकता है
बरसों पहले का बबछु डा हुआ

बिपन का गाँवा ,
सपनें में ही पछाडे िाती है

गाांव की नदी
अपने घटु नों पर माथा रिकर

िपु -उदास सा बैठा होता है
नदी फकनारे वाला बढू ़ा बरगद
धूल-भरे कच्िे रास्तों से लेकर

िेतों की बीि वाली पगडडां डयांा
की भी आवाजंे सुनाई पडती हंै

मझु े सपनंे मंे ।
वपता के लगाये हुये
आम-अमरूद , लीिी ,जामुन ,शीशम
के बूढ़े पेडों की उां गशलयांा पकडकर
बिपन के बबछु डे दोस्त भी

आते हैं सपनंे मंे
और सबसे दबे-पांवा ,जो हर रोज

सपनें मंे आता है ,वह है
शमट्टी और िपरैल वाला गाांव का

वो घर स्जसकी गोबर और

चिकनी शमट्टी सी शलपी दीवारों से
फू टती होती है

माां की हथेशलयों की
नरम -सी िुश्बू

एकबारगी नीदां िलु जाती है
इस सदष रातों में भी िुद को
पसीने से तर-बतर पाता हूाँ।

हैरत तो तब होती है
जब नींाद िुलने के घांटों बाद भी

मेरी सांासों में मौजूद होती है
मेरी माां की हथेशलयों की वही

नरम -सी िुश्बू

जसै ी की मेरे बिपन के
ददनों में माां जब मझु े
अपने हाथों से खिलाती थी
तब कु छ इसी तरह की
िशु ्बू...................।

सुरेश वमाष

एक कववता --पवन/हवा

जमाने की हवा कु छ ऐसी िली,
हम ठगे रह गए

बस यूांही िडे देिते रह गये ।
गाँवा से जब मैं िला था शहर की ओर ,

गा रही थी ज़मींा, हांस रहे थे पवन।
आसमांा के ओट से

सुबह की फकरणें फू ट-फू ट कर,

कर रही थी बातंे हवाओंा के सांग।

जमाने की हवा कु छ ऐसी िली -----------।
क्या? पता था शहर की हवा है दवु र्त हवा!

धलू -धऑु , चिक-चिक, मोटर -गाडी,और
फै ला ववर्ैला पवन ।

नतस पर दवु र्त है आदमी का हवाई-
िलन।

दम घुटने लगी जीना मुहाल हुआ,
क्या? िाह लेकर आऐ थे,

क्या-क्या शमला

पेट की आग को भूि देता रहा हवा ।
कोई सरु त नहीां था सिु -िनै का,
तन-मन बेिनै हुआ,
रोने लगी आत्मा ।

याद आने लगे अपना गांाव का कु ऑ।
जमाने की हवा कु छ ऐसी िली ----- ।

तभी धीरे से पवन ने कहा!
लौट िलो प्रवासी, घर -गांवा अपना ।

पवन झकझोरा मन को सहलाया,
ठां डी -ठां डी हवा सरकने लगी,

कानों मंे पवन धीरे-धीरे गनु गनु े लगा ।
मुडने लगे पांाव गांवा की ओर

जहाँा मदां -मांद सगु ांचधत पवन
कर रहा है मेरा इन्तज़ार ।

मानो कह रहा है,
अपने गाांव का हवा है
अभी तक है स्वच्छ ।
जमाने की हवा कु छ ऐसी िली -----।

डॉ पषु ्पा जमुआर

गाावँ

मेट्रोपॉशलटन शसटी की वो मॉडनष लडकी ;

पहली बार गाावँ के जीवन शलै ी से दो -
िार हुई

उसके तो आश्ियष का दठकाना ही न रहा !
घर से बाहर ननकलने पर कोई भी वेल
ड्रसे ्ड नहीां ददिता
सब के पास समय ही समय है।

गली के हर मोड पर तोंद सहलाते, पान
िबाते कोई न कोई िािा ददि ही जाते हैं।

आवश्यक नहीां फक ददन का दोनों भोजन
घर पर ही हो,

नाश्ता फू लेसर ििा के घर हुआ तो

रानी काकी की पकौडडयों की तारी़ि के
कारण परू ा भोजन उन्हीां के अंगा ना में हो

गया।

फकसी के यहााँ जाने पर कु कीज़ या वेफे सष
सवष नहींा फकए जाते हंै

परोसा जाता है नीम्मक तले रोटी।
फकसी के भी अपाटषमंेट के ़िशष पर कापेट

नहीां बबछा होता है
़िशष तो यहाँा शसमंेट की है जो फक बीि

बीि से कू टी फू टी सी भी है।

पर यहााँ इन सभी बातों की परवाह फकसे
है?

परवाह है तो गोपलवा के बाबूजी की बरसी
में एमकी िाना बनवाने फकस को िशु ामद

करें।
यहाँा तो वॉटर सप्लाई जैसा कोई कॉन्सेप्ट

ही नहीां है,
सब के यहााँ िापा कल है, स्जसे िलाना
हमारे शलए एक आनंदा दायक िेल है।

फकतनी अलग व अनोिी दनु नया होती है
गाँवा की,

यहााँ रोड्जज़ बनवाए नहीां जाते बस िलते
िलते बन जाते हैं।

यू माइंाड योर ओन बबज़नेस - ई कोन
िीज होता है?

कह कर लोग साइड से ननकल जाते हैं।
यहााँ तो इक्स्ट्रीम शसिएू शन मंे पसनष ल
प्राब्लम्ज़ भी पस्ब्लक में सॉल्व फकए जाते

हंै।

मेट्रोपॉशलटन शसटी की वो लडकी सोिती है
- फकतने कू ल होते हैं न सभी लोग गावँा
के ?

स्स्मता कु मार

मेरा गावाँ

वो बिपन के फकस्से और कहाननयााँ,
आज भी याद है हमारी शतै ाननयाँा ,

कई कहाननयाँा मनोमस्स्तष्क में हैं सारे,
दादा-दादी आज भी हंै सबसे प्यारे,

वो शमट्टी का िुल्हा ,वो सौंधा- सा िाना,
सांयकु ्त पररवार में िाना और कहकहा
लगाना,

ईि,मलू ी, गाजर दसू रों के िेत से िाते ,
बंादर टोली कु छ िाते कु छ समेट लाते,

कभी पेड पर िढकर अमरुद िाते,
कभी आम और लीिी तोडकर नीिे लाते,

िादंा नी रात मंे छत पर सोना,
पुराने फकस्से कहानी को फफर से बोना ,

नददयों मंे िबू नहाना ,
घर आकर साथ शमलकर िाना,

काश बिपन फफर से आता,
गाँाव की सगु ाधं वापस ला पाता …

ववनीता शमाष

गांाव की याद

आिंा मेरी बदंाू क्यों छलका रही है?

गाांव की फफर याद शायद आ रही है।

'पुर' या 'पुरवा' भूलता है ही नहींा
दरू से माटी मुझे दलु रा रही है ।

पनघटों मंे गागर छलकती प्यार की,
कु छ पुरानी यादों को दोहरा रही है।

द्वार पर कोई शशवालय तो ददिा दे,
यह जगह तो झठू मे भरमा रही है।

आम के पत्तों से छनकर बाररशें,
छू के तन को, मन शभगोए जा रही है।

रेशमी ज़लु ्फो से लहराते वे िेत
दरू तक रुमाननयत फै ला रही है।

इन इमारत में बसे, पत्थर के ददल,
मोदहनी उस गावां की तडपा रही है।

आदमी के जंागलों मंे िो गए हम,
शस्ख्सयत अपनी दगा दे जा रही है।

प्राणेन्र नाथ शमश्र


Click to View FlipBook Version