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Published by Himanshu Shekhar Hindi Poet, 2020-10-18 14:52:34

18.10.2020

18.10.2020

शब्द सत्ता शशल्पी संवाद
भाग 09

दोस्तों!

“शब्द सत्ता” के शशल्पी नामक व्हाटसएप
समूह मंे होने वाली दैननक कववता ववननमय
वववरण आपके सामने प्रस्तुत है| आज
ददनांका 19.10.2020 की एक झलक देखिए|

डॉ दहमााशं ु शेिर

चतरु ांगी काव्य गोष्ठी

*शशल्पी गण*

डॉ स्वाती कपूर चढ्ढा
प्राणंेद्र नाथ शमश्र
प्रेरणा
सुवप्रया पाण्डे

मन क्यों इतना उदास है
क्या कु छ पाने की आस है
िोया िोया सा क्यों है तू
क्या वप्रयतम िडे पास हैं...

मन को ना करो उदास
ना यहांा-वहांा तू ताक
एक बार अपने अांदर तो झांका
साथ नहीां तो क्या हुआ वह तरे े सबसे है

पास

वप्रयतम मे "तम" है
वप्रयतमा मे है "तमा"

इसीशलए माहौल घर का
रहता है "तमतमा"

मन मंे शमलने की आस है
जजसके शलए सारे एहसास है

होंगे लािों इस दनु नया मंे
मन के शलए तो कोई एक ही िास है..

ककसी और को िास बनाए क्यों
हम िदु से शमल ना जाए क्यों
एक ददन साथ सभी का छू ट जाता है तो
अपनी दहम्मत िुद ना बन जाए क्यों

जब कोई िास अपना िोता है
ये ददल रह रह उदास होता है,

पहले मंै भी उदास रहती थी
हर पल आांसू पीती थी

किर एक ददन िदु को तलाशा मनैं े और
समझ आया

उससे पहले कभी
िुद को अहशमयत ही कहा दी थी मनैं े

इसी अहशमयत की तो दरकार है
काम पहले यही करना मेरे सरकार है।

उदासी में भी इांतजार की आस छु पी होती
है

शमले या के ना शमले वो हमें,
शमलन की हसीां प्यास छु पी होती है।

कब शमलेंगे, क्या पता, बस इतना सा वह
कह गये,

आस की हम हम आस करते, आस मे ही
रह गये।

हर ननराशा के बाद आशा आती है
किर क्यों घटा उदासी की छाती है,

िबर होती है के वो हमारा ही है किर क्यों
शक की बदशलयांा

रह रह कर नघर आती हैं।

शक नही हमको नदी पर
शक पे तो सलै ाब है

बादलों का क्या भरोसा
पीछे ही माहताब है।

बरस जाने दो महताब को
सैलाब को भी बह जाने दो
शक का कीडा कभी कु लबुलाए अगर
छोडो उस, ववश्वास को ना टू ट जाने दो।

आस पर दनु नया कायम है
आस पकडकर जी...

एक ददन पूरी होगी आस..
इसी िबू सूरत एहसास मंे जी...

आस है तो ववश्वास है
जीवन में और भला क्या िास है,

सासंा ें हैं पल दो पल की
जी ले बबदंा ास क्यांू होता तू उदास है।

ए ददल उदास ना हो...
आगे चलना सीि..

परायों को अपना बना
जीवन मंे मसु ्काना सीि..

आगे चले हंै इतना, सब पीछे रह गये
सादहल पे हम िडे थे और मोती बह गये।

ज्यादा नहींा थोडी सी सोच जदु ा रिती हूंा
परायो को अपना बनाने मंे यंाू तो कोई हजज

नहीां
एक वक्त के बाद पर सब अपने ही पराए

हो जाते हंै
इसशलए िदु के शलए िदु को ही सबसे

िास बनाए रिती हूंा

तोड डाली कववयों ने बासंा ुरी की रागगनी
दरू बैठी रूठकर अब, चााँद से ही चााँदनी ।

चादां से चाादं नी रूठ गई तो
सरू ज से उसकी रोशनी भी रूठ जाएगी

किर प्रकृ नत भी उदास हो जाएगी
तो कला कहांा से प्रेरणा पाएगी..

सरू ज की तवपश मे शरारों का राज है
सात कलाओंा के बबना, सरू ज बेताज है।

छाती है जब घटाएां

सरू ज कहीां छु प जाता है,
इतराता जो किरता है नभ पे
बादलों के पीछे छु प रोता है।

ये घटायंे मौसमी हैंंंा, ये सूरज को क्या
ढकें गी

जो जल रहा गरै ों के शलए, उसकी गशमयज ाँा
क्या रुके गी

गमी चाहे हो ककतनी
शाम ढले िो जाती है
शीतल चाादं नी रातों मंे
ज़िन्दगी शीतलता पाती है।

बरसों में जो नस नस मंे भर ददए हंै
सासं ्कार

उन्हें बदलने मंे वक्त तो लगेगा
पर यह भी सच है कक

जल्द ही एक ददन कोहराम तो मचेगा

ये कोहराम नहींा क्ांानत है
आए ना जबतक ये

शमलेगी तबतक कहांा शानंा त है।

तोड रही है वजनज ाएां बदां दशंे
लडककयाां आज की,

दबा के रि सके उसे अब हैशसयत कहाां
समाज की।

लडककयाँा तो शजक्त थीां कल, आज भी हंै,
तोडने और टू टने के उनके अलग अांदाज

भी हैं ।

यूंा तो सहन शजक्त बहुत है
आसानी से वह टू टती नहींा
और तोडने पर अगर आ जाए तो ककसी
को किर छोडती भी नहींा

आधनु नकता के नाम पर

गररमा का चोला उतार िें का है
नारी उत्पीडन के नाम पर

कु छ नाररयों ने पुरुषों का जीवन नकज
कर रिा है

नारी मतलब "न अरर"
दशु ्मन कोउ न होय

नारी यदद पशु बन जाय तो
नकज वहींा पर होय ।

दोष ककसी में हो सकता
नर हो या के नारी हो,
सुधरने की जरूरत दोनों को है

कदहए कै सी तैयारी है।

हम तो तैयार हैं, बहुत दरू तक जाने के
शलए

कभी उनको सताने के शलए कभी िुद को
सताने के शलए ।

नर हो या नारी.. सबको समझनी होगी
सीमाएंा अपनी सारी ..

सीिना होगा अनशु ासन का पाठ और
बनानी होगी ररश्तो की गररमा न्यारी...

तभी खिलेगी यह िु लवारी

दोनों ही हंै ़िरूरी
जीवन की इस गाडी में,
बबन इक दजू ा व्यथज रहे
जजए भी तो बस लाचारी मंे।

अपने हक के शलए ककसी को आहत करना
कब सही कह लाया था

यह औरत और आदमी की बात नहींा हर
जात में कोई ना कोई दाग लगाने वाला

था

इस दाग पर सबको सिज एक्सेल लगाना
होगा

बेदाग रि अपनी आत्माओंा को
समाज को साि सुथरा बनाना होगा।

ये भी कडवी एक हकीक़त है समाज की
खदु कर के गलनतयांा दोष ननकालती हैं वो

पुरुष समाज की।

प्यार के अपने ददज को हम कहे भी तो
कै से

उसे अब बेरांग हम कहे भी तो कै से हर
पल तो उसके िुशशयों की दआु एां मांागी है

बेविाई की सजा अब उसे हम देिंे तो
कै से


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