शब्द सत्ता शशल्पी संवाद
भाग 22
दोस्तों!
“शब्द सत्ता के शशल्पी” नामक व्हाटसएप
समूह में होने वाली दैननक कववता ववननमय
वववरण आपके सामने प्रस्ततु है| आज 15
जनवरी 2021 को साझा की गई कववताओं
की एक झलक देखिए|
डॉ हहमाशं ु शेिर
हदनाकं : 15.01.2021
इस अंक के शब्द शशल्पी गण
सुरेन्द्र प्रजापनत
प्रेरणा पाररश
प्राणेन्द्र नाथ शमश्र
मीनू वमाा
सरु ेश वमाा
डॉ पुष्पा जमुआर
सौ-सौ अधं कार से लदा है
शब्द हििु र कर आ रहा है
कववता में
और धूप से ऊष्मा ले रहा
मुिर अशिव्यक्तत के शलए
जैसे चीथड़ों में शलपटे बच्चे
इस पूस की कनकनाती रात मंे
हििु रता, अलाव लहराता
हाड़ कं पा देने वाली रात को
मंुह चचढ़ाता, उम्मीद की लौ से
अशिलाषा की चचगं ारी को
फूँ क मार कर जगाता है
और सवु ह की रुपहली धपू को
सेंकता, गुनगनु ाता
गमाहा ट को िरता
ताप की रिवाली करता हुआ
कववता में ननिीक िड़ा है
जो सौ सौ अधं कार से लड़ा है
सुरेन्द्र प्रजापनत
मिु ौटा में यगु का नायक है
शोर मत करना, कानाफू सी नहीं
असली चेहरों में शलपटा है ना
बोखझल उक्म्मन्द्दो का आश लगाए
वही तो िलनायक है
रोना, चगड़चगड़ाना तो अपयश है
समदृ ्चध, शानं त पर धब्बा है
वैिव की समाचध का
हास्यास्पद कलंक है
झिू सच का बाजार का चलन हो गया
इस बाजार में सरपट दौड़ लगा दो
छल, कपट फरेब से तो
हक्स्तनापुर सजा है
और न्द्याय का डकं ा बजा है
और एक तमु हो कक
सच का बाँूसरु ी फू क रहे हो
आदश,ा त्याग का मगं ल गाकर
अपने दामन मंे ही थकू रहे हो
लेककन देिो देवता मशलन बक्स्तयों में
िपा रहे हैं अपनी ऊजाा को
बेतरतीब, जीते हुए सड़ाधं पैदा कर रहे हंै
कहीं नंगे बदन िं ढ से कांप रहे हंै
और शाही सम्राट अपनी उपलक्ब्ध का
सदाव्रत बाूटँ रहे हैं
सुरेन्द्र प्रजापनत
हर चेहरा मुिौटा
बोखझल हंै उम्मीदें
धशू मल है सारी आशा,
हर चेहरा मुिौटा
तया इसका िरोसा!
झिू ही झिू और
फरेबबयों का है मेला
सच पे हटके जो
है ककतना अके ला,
अपनों के िी मिु ौटों मंे
रहता है छशलया,
स्वाथा लालच से
िरी सारी ये दनु नया,
हदल में तो ज़हर पर
जबु ां पे शहद है,
मन तो है काला
मधरु ता बेहद है,
िजं र ये चलाए
जब िी मौका पाए,
बोखझल हंै उम्मीदंे
धूशमल सारी आशा,
देते सब झिू ा सा
कफर िी हदलासा ,
हर चेहरा मिु ौटा
तया इसका िरोसा!
प्रेरणा पाररश
देश प्रेम का जज़्बा क्जसमंे
हो आकं ि िरा,
तना हुआ हो सीना क्जसका
पवता जसै े हो िड़ा,
क्जसकी हहम्मत से देश सुरक्षित
हो हरदम रहता,
जो डटा रहता सीमा पर
हर मौसम एक समान,
ऐसे हर वीर सैननक को
शत शत हमारा नमन,
कर लेता जो देश की िानतर
हूँस मतृ ्यु का िी वरण
उसकी ही कृ पा से तो
सवता ्र सुि शानं त है,
उसके त्याग की ही बदौलत
िुशशयाूँ हमको शमलती हैं।
प्रेरणा पाररश
इस कु ते को हदल से अपने लगाइए
हहम्मत हौसले से बढ़ते अब जाइए।
जीवन सफ़र है , चलता जाता है
गाता गुनगुनाता
हँूसता और खिलखिलाता,
फू लों सा मुस्कु राता
मन की कशलयाूँ खिलाता,
ननझरा सा ही कल कल
ये बहता जाता है,
जीवन सफ़र है
चलता जाता है।
माूँ की गोदी मंे
सुकू न के पल हों,
जवानी के अल्हड़
बेकफ़क्री के हदन हों,
हमसफ़र का साथ या ,
गहृ स्थी की कोई उलझन,
बढ़ु ापे की िी शशकन मंे
दआु एं सजाता है,
ढलती सी िी ऊजाा मंे
आशाओं का ये सावन,
उम्मीदों से अपना
दामन सजाता है,
जीवन सफ़र है
चलता जाता है।
गहरे से िी तम में
रोशनी का है कतरा,
डट कर हर मुक्ककल से
शिड़ता जाता है,
तूफां घनेरे से
लड़ता जाता है,
पाकर के िी िोकर
ना िोता है सबं ल,
लड़िड़ाते हुए िी
संिलता जाता है,
जीवन सफ़र है
बढ़ता जाता है।
ग़म चाहे खशु ी हो
उदासी या हँूसी हो,
सबको ही क्ज़न्द्दगी मंे
अपने अपनाओ,
इसकी ही रौ मंे
बहते तुम जाओ,
तयकंू क,,,
जीवन सफ़र है
चलता जाता है,
रुक जानेवाला
पीछे रह जाता है।
प्रेरणा पाररश
मकर राशश को
छू ती हुई धूप
मशलन नहीं है
शसफा
लपेटे हुए है राि.....
क्जसे माघ मे धोकर
प्रज्वशलत होगी
और प्रकाशशत करेगी
आक्कवन तक
एक एक जड़
एक एक शाि.....
यह सयू ा है
मशलन नहीं होता है...
परु ुषाथा का प्रतीक है
इसशलए
दक्षिणायन मे
दबु ला होकर िी
नहीं सोता है....
प्राणेन्द्र नाथ शमश्र
नई सबु ह
मन का तम जब छट जाएगा,
क्रोध, लोि हदल से जब शमट जाएगा,
बुराई के मागा से हट कर जब,
सच्चाई की राह पर चला जाएगा,
नई सबु ह तिी हो पाएगी।
पाप की अक्नन जब बुझ जाएगी,
अहंकार, द्वेष मन से जब शमट जाएगा,
शत्रतु ा के रास्ते से दरू हो जब,
शमत्रता की राह को चुना जाएगा,
नई सुबह तिी हो पाएगी।
भ्रष्टाचार का ताप जब शातं हो जाएगा,
ननदायता,मोह जब हदल से शमट जाएगा,
बेईमानी की पथों से हट कर जब,
ईमानदारी की राह पर बढ़ा जाएगा,
नई सबु ह तिी हो पाएगी।
बेरोजगारी दरू जब हो जाएगी,
लटू -पाट जब धरा से बबलपु ्त हो जाएगा,
गलत सगं नत से बचकर जब,
सत्सगं नत की राह को अपनाया जाएगा,
नई सुबह तिी हो पाएगी।
दरू रयां हृदय की जब शमट जाएगी,
वैर- ववरोध जब हदल से ित्म हो जाएगा,
दकु मनी के मागा से हटकर जब,
आत्मीयता के मागा पर जाया जाएगा,
नई सुबह तिी हो पाएगी।
मीनू वमाा
रोज ककस्तो में
थोड़ा-थोड़ा
मरता है आदमी
टू टता है कफर
रेजा-रेजा होकर
बबिरता है आदमी
सुरेश वमाा
बबिरा हुआ आदमी
कफर से
तिी सिं लता है
जब जीवन के
िुरदरे पथ पर
कोई उसके
साथ चलता है
अके ला आदमी
ककतना
अबस और असहाय
होता है ।
ननरीह लाचार
और ननरुपाय
होता है।
सुरेश वमाा
मैं तो
बाकायदा
अपने ववकवास को
अपने कु रते की
बायीं जेब मे
रिा था ,जाने तयंू ?
ववकवास को जेब मंे
रिते समय यह
िूल गया कक
मेरी ननयनत की तरह
मेरी जेब िी तो
फटी हुई है।
सरु ेश वमाा
इस कु रते को
िलू ने का मतलब है
अपनी धड़कनों को
िलू जाना।
अपनी मां के
आसुओं की महक को
िलू जाना ।
वपता के स्पशा को
िलू जाना ।
असल मंे
मरने के हदन मेरे
वपता की देह पर
यही कु रता था ।
इस कु रते को
जीत-े जी देह से,
तो हरचगज
नहीं उतारं गा
हाूँ ,मरने के हदन
अपने बड़े बेटे को
दे जाऊं गा इस कु रते को
ये उस पर होगा
इसे मेरी तरह पहने
या िूल जाये।
सुरेश वमाा
खिचड़ी पवा
खिचड़ी जब इजाद हुआ
तब खिचड़ी का पवा हुआ
तो मकर संक्रांनत का पवा कहलाय।
खिचड़ी की महहमा देिो िाई
खिचड़ी से घर-पररवार बना
घर-घर मंे िुशशयाँू आई
घर बना
तो समाज बना ,
समाज बना तो राजनीनत आई
राजनीनत मंे सकक्रय हुआ इन्द्सान ।
अब तो एसी हालात है बन्द्धु
हर तरफ है खिचड़ी की हररयाली।
चारों ओर है खिचड़ी का हीं बोलबाला
बस लोग पकाने लगते खिचड़ी
जहाँू शमल जाती है
ज़रा िी िलु ीं खिडकी ।
ककशसम-ककशसम की होती खिचड़ी
बच्चे,बूढ़े, नौजवानों की खिचड़ी
स्त्री और पुरुषों की खिचड़ी
हर वगा और जानत की खिचड़ी
धमा -संस्कृ नत की खिचड़ी
अपने-अपने तौर बनाते खिचड़ी
खिचड़ी पकती है अलग-अलग खिचड़ी
का है रप एक
पर खिचड़ी का नाम अनेक
ग़र खिचड़ी पकते हीं पकड़ा जाता,
कौन-कौन-ककतना-ककसने
इस खिचड़ी मंे ड़ाला मसाला
तो उस खिचड़ी का तया महत्व
जग़ जाहहर हो जाता क्जसका
खिचड़ी ऐसी पके कक
गल िी जाऐ और पच िी जाऐ
कोई न समझ पाऐ कक कै से पकी
ककसने पकाया ।
तब खिचड़ी का पवा कहलाएगी ।
मकर संक्रानं त का पवा मना कर
खिचड़ी डट कर िाओ
पतगं उड़ाओ जम कर
आया है खिचड़ी का पवा
डॉ पषु ्पा जमुआर